Friday, October 25, 2013

विचारधारा का वर्गआधार

सत्‍ताधारी वर्ग के विचार हर युग में सत्‍ताधारी विचार हुआ करते हैं : अर्थात् जो वर्ग समाज की सत्‍ताधारी भौतिक शक्ति होता है, वह साथ ही उसकी सत्‍ताधारी बौद्धिक शक्ति भी होता है। जिस वर्ग के पास भौतिक उत्‍पादन के साधन होते हैं, उसका साथ ही साथ बौद्धिक उत्‍पादन पर भी नियंत्रण रहता है, और इस तरह साधारणतया जिन लोगों के पास बौद्धिक उत्‍पादन के साधन नहीं होते, उनके विचार इस वर्ग के अधीन रखे जाते हैं। सत्‍ताधारी विचार प्रभुत्‍वशाली भौतिक सम्‍बन्‍धों की, यानी विचारों के रूप में ग्रहण किये जाने वाले भौतिक सम्‍बन्‍धों की बौद्धिक अभिव्‍यक्ति के अलावा और कुछ नहीं होते; अत: वे उन सम्‍बन्‍धों की अभिव्‍यक्ति हैं, जो एक वर्ग को सत्‍ताधारी बनाते है; इसलिए वे उसके प्रभुत्‍व के विचार हुआ करते हैं। जिन लोगों को लेकर सत्‍तारूढ़ वर्ग बनता है, उनके पास अन्‍य बातों के अलावा चेतना होती है, इसलिए वे सोचते हैं। इसलिए वे जहाँ तक एक वर्ग के रूप में शासन करते हैं तथा एक युग का विस्‍तार तथा परिधि निर्धारित करते हैं, उस हद तक यह स्‍वत: स्‍पष्‍ट है कि वे यह कार्य इसके पूरे फैलाव के साथ करते हैं, इसलिए अन्‍य बातों के साथ चिन्‍तकों के, विचारों को पैदा करने वालोंके रूप में भी शासन करते हैं और अपने युग के विचारों की रचना तथा वितरण का नियमन करते हैं: इस प्रकार उनके विचार युग के सत्‍ताधारी विचार होते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे युग में तथा ऐसे देश में, जहाँ शाही सत्‍ता, अभिजात वर्ग  तथा बुर्जुआ वर्ग आधिपत्‍यके लिए होड़ कर रहे हों और इस कारण आधिपत्‍य विभक्‍त हो, वहाँ सत्‍ता के विभाजन का सिद्धान्‍त प्रभुत्‍वपूर्ण विचार सिद्ध होता है तथा ''चि‍रन्‍तन नियम'' के रूप में अभिव्‍यक्त होता है।
श्रम विभाजन, जैसा कि हम उसे ऊपर (पृष्‍ठ [30-33]) अब तक इतिहास की प्रमुख शक्तियों में से एक के रूप में देख चुके हैं, सत्‍ताधारी वर्ग में भी मानसिक तथा भौतिक श्रम के विभाजन के रूप में अपने को प्रकट करता है, इस तरह इस वर्ग के अन्‍दर एक भाग वर्ग के चिन्‍तकों (उसके सक्रिय, विचारक्षम सिद्धान्‍तकारों जो अपने बारे में इस वर्ग के भ्रमों को सर्वांगपूर्ण बनाने के काम को अपनी आजीविका का मुख्‍य साधन बनाते हैं) के रूप में प्रकट होता है, जबकि दूसरे लोग इन विचारों और भ्रमों के प्रति अधिक निष्क्रिय होते हैं, वे इन्‍हें सिर्फ आत्‍मसात् ही कर सकते हैं, क्‍योंकि वे ही वस्‍तुत: इस वर्ग के सक्रिय सदस्‍य होते हैं तथा उनके पास अपने बारे में भ्रम तथा विचार संवारने के लिए कम समय होता है। इस वर्ग के अन्‍दर यह विभाजन दोनों भागों के बीच एक हद तक विरोध तथा वैरभाव में भी बदल सकता है, परन्‍तु वह व्‍यावहारिक टकराव की दशा में, जिसमें स्‍वयं वर्ग का अस्तित्‍व ही ख़तरे में पड़ सकता है, अपने आप खत्‍म हो जाता है, उस दशा में यह दिखावा भी लुप्‍त हो जाता है कि सत्‍ताधारी विचार सत्‍ताधारी वर्ग के विचार नहीं थे और उनमें इस वर्ग की शक्ति से अलग शक्ति थी। किसी काल विशेष में क्रांतिकारी विचारों का अस्तित्‍व एक क्रांतिकारी वर्ग के अस्तित्‍व का पूर्वानुमान करता है; इस क्रांतिकारी वर्ग के पूर्वाधारों के बारे में ऊपर काफी कुछ कहा जा चुका है(पृष्‍ठ [32-35])
यदि हम अब इतिहास के गतिक्रम पर विचार करते समय सत्‍ताधारीवर्ग के विचारों को स्‍वयं सत्‍ताधारी वर्ग से पृथक् कर दें तथा उन्‍हें एक स्‍वतंत्र अस्तित्‍व प्रदान करें, यदि हम इन विचारों की रचना तथा उनके रचनाकारों की अवस्‍थाओं पर ग़ौर करने का कोई कष्‍ट किये बिना अपने को यह कहने तक सीमित रखें कि ये या वे विचार एक निश्चित काल में हावी थे, यदि हम इस प्रकार उन व्‍यक्तियों तथा अवस्‍थाओं को उपेक्षित करें, जो विचारों के स्रोत थे, तो हम, उदाहरण के लिए, कह सकते हैं कि उस काल में जब अभिजात वर्ग का प्रभुत्‍व था, प्रतिष्‍ठा, निष्‍ठा आदि सम्‍प्रत्‍ययन तथा बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्‍व के दौरान स्‍वतंत्रता, समानता, आदि सम्‍प्रत्‍ययन प्रभुत्‍वशाली थे। कुल मिलाकर स्‍वयं सत्‍तारूढ़ वर्ग इसे इसी तरह मानता है। इतिहास के इस सम्‍प्रत्‍ययन को, जो तमाम इतिहासकारों में विशेष रूप से अठारहवीं शताब्‍दी से व्‍याप्‍त है, आवश्‍यक रूप से इस घटना-दृश्‍य का सामना करना पड़ेगा कि अमूर्त विचार, अर्थात् वे विचार अधिकाधिक रूप से हावी हैं, जो अधिकाधिक रूप से सार्वत्रिकता का रूप ग्रहण करते हैं। बात यह है कि हर नया वर्ग, जो अपने से पहले शासन करने वाले वर्ग के स्‍थान पर अपने को प्रतिष्‍ठापित करता है, अपनी लक्ष्‍य सिद्धि की ख़ातिर ही अपने हित को समाज के तमाम सदस्‍यों के समान हित के रूप में प्रस्‍तुत करने के लिए बाध्‍य होता है, यानी, यदि हम विविक्‍त विचारणा के रूप में कहें, तो उसे अपने विचारों को सार्वत्रिकता का रूप देना पड़ता है और उन्‍हें एकमात्र युक्तियुक्‍त, सार्वत्रिक रूप से वैध विचारों के रूप में प्रस्‍तुत करना पड़ता है। क्रांति करने वाला वर्ग - यदि और कारण नहीं, तो इसी कारण कि वह दूसरे वर्ग के विरुद्ध है - आरम्‍भ से ही एक वर्ग के रूप में नहीं, वरन् पूरे के पूरे समाज के प्रतिनिधि के रूप में प्रकट होता है; वह एक सत्‍ताधारी वर्ग के खि़लाफ़ खड़े समाज के पूरे जनसमूह के रूप में प्रकट होता है।* वह ऐसा इसलिए कर सकता है कि आरम्‍भ में उसका हित सचमुच तमाम अन्‍य गैर सत्‍ताधारी वर्गों के समान हित से जुड़ा होता है, क्‍योंकि अबतक विद्यमान अवस्‍थाओं के दबाव के अन्‍तर्गत उसका हित अभी विशेष वर्ग के विशेष हित के रूप में विकसित नहीं हो पाया। अतएव उसकी विजय अन्‍य वर्गों के, जिन्‍हें प्रभुत्‍वपूर्ण स्थिति प्राप्‍त नहीं होती, दूसरे बहुत लोगों को भी लाभ पहुँचाती है, परन्‍तु उसी हद तक लाभ पहुँचाती है, जिस हद तक वह अब इन लोगों को अपने को ऊपर उठाकर सत्‍ताधारी वर्ग में प्रवेश करने की स्थिति में पहुँचाती है। फ्रांसीसी बुर्जुआ वर्ग ने जब अभिजात वर्ग की सत्‍ता उलटी, तो उसने इस तरह बहुत से सर्वहारा लोगोंके लिए अपने को सर्वहाराओं के ऊपर उठाना सम्‍भव बनाया, परन्‍तु सिर्फ उस हद तक, जिस हद तक वे बुर्जुआ बने। इसलिए हर नया वर्ग पहले शासन करने वाले वर्ग की तुलना में व्‍यापकतर स्‍तर पर ही अपना अधिनायकत्‍व हासिल करता है, जबकि नये सत्‍ताधारी वर्ग के विरुद्ध ग़ैर सत्‍ताधारी वर्ग का विरोध आगे चलकर और भी तीक्ष्‍णता तथा गहनता के साथ विकसित होता है। ये दोनों बातें यह तथ्‍य निर्धारित करती हैं कि इस नये वर्ग के विरुद्ध किया जाने वाला संघर्ष, अपनी बारी में, तमाम पूर्ववर्ती वर्गों की अपेक्षा, जिन्‍होंने शासन हासिल किया था, समाज की पूर्ववर्ती अवस्‍थाओं के अधिक निश्चित तथा मूलगामी अस्‍वीकरण को लक्ष्‍य बनाता है।
अमुक वर्ग का शासन कतिपय विचारों का शासन मात्र है, इस सारे भ्रम का निस्‍सन्‍देह उस समय स्‍वाभाविक अन्‍त हो जाता है, जब वर्ग-शासन आम तौर पर समाज के संगठन के रूप में खत्‍म हो जाता है, अर्थात् ज्‍योंही किसी विशेष हित को सामान्‍य हित के अथवा ''सामान्‍य हित'' को सत्‍ताधारी हित के रूप में प्रस्‍तुत करना आवश्‍यक नहीं रह जाता।


-कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्‍स (ज़र्मन विचारधारा, 1846)

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*[हाशिये पर मार्क्‍स की टिप्‍पणी:] (सार्वत्रिकता इनके समरूप होती है:1) वर्ग बनाम श्रेणी ,2) प्रतियोगिता, विश्‍वव्‍यापी संसर्ग आदि,3) सत्‍ताधारी वर्ग की बहुत बड़ी संख्‍यागत शक्ति, 4) समान हितों की भ्रान्ति; आरम्‍भ में भ्रान्ति सही होती है, 5) सिद्धान्‍तकारों के भ्रम तथा श्रम-विभाजन।

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