Friday, September 15, 2017

भीड़ की हिंसा – बेचेहरा हत्यारा या समाज का हत्यारा चेहरा?




(इस लेख का एक संक्षिप्त और संपादित रूप 'रविवार डाइजेस्ट' के अगस्त'2017 अंक में मेरे स्तम्भ 'रहगुज़र' के अंतर्गत प्रकाशित हुआ है । पूरा लेख यहाँ दे रही हूँ । )

--कविता कृष्णपल्लवी

हसन नाम जानलेवा हो सकता है
अमृत यह नाम भी निरापद नहीं रहा
बहुत सुरक्षित नहीं हैं आप
महंगू नाम के साथ
बलबीर सिंह नाम के ख़तरे तमाम हैं
इस तंत्र में सिर्फ आपका नाम
आपकी हत्‍या का सबब हो सकता है
-- देवी प्रसाद मिश्र
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हमारे देश का राष्ट्रीय अपराध भीड़ द्वारा हत्‍या (लिं‍चिंग) है। यह एक घण्‍टे की सृष्टि नहीं है, यह अनियंत्रित क्रोध का आकस्मिक विस्फोट या किसी पागल भीड़ की अकथनीय निर्ममता भी नहीं है।
-- इदा बी. वेल्‍स (1862-1931)
(अश्‍वेत अमेरि‍की पत्रकार और नागरिक अधिकार कर्मी)
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भीड़ का क़ानून असामान्‍य या विरूपित जनमत की सर्वाधिक बलसम्‍पादित अभिव्‍यक्ति है; यह दिखलाता है कि समाज भीतर तक सड़ चुका है।
-- टिमोथी थॉमस फॉर्चुन (1856-1928)
(अमेरिकी लेखक-पत्रकार-नागरिक अधिकार कर्मी)
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राष्‍ट्रीय घृणा एक विलक्षण चीज़ होती है, यह सर्वाधिक मज़बूत और सर्वाधिक हिंसक वहीं होती है जहाँ संस्‍कृति का स्‍तर निम्नतम होता है।
-- जोहान्‍न वोल्फगांग गोयठे
(जर्मन महाकवि, दार्शनिक)
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फासीवाद अपनी प्रकृति से भीड़ का आन्दोलन होता है।
-- पी.जे.ओ' रूर्के
(अमेरिकी पत्रकार और व्यंग्‍यकार)
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कथित गोरक्षकों की भीड़ द्वारा अख़लाक़ और पहलू खान की हत्‍या के बाद, हरियाणा में बल्लभगढ़ रेलवे स्टेशन पर इस वर्ष 22जून को 15 वर्षीय जुनैद को एक भीड़ ने चाकुओं से गोदकर मार डाला। जुनैद ईद की ख़रीदारी करके अपने भाई और दोस्‍तों के साथ दिल्‍ली से वापस अपने गाँव जा रहा था। भीड़ ने उसे गोमांस भक्षक कहा और चाकू मारने से पहले उसकी टोपी उतारकर फेंक दी। इस घटना ने पूरे देश के अमनपसंद नागरिकों की अन्‍तरात्‍मा और विवेक को मानो झकझोरकर रख दिया। सोशल मीडिया पर की गयी एक पहल ने पूरे देश में विरोध की स्‍वत:स्फूर्त लहर सी पैदा कर दी। पचासों शहरों में 'नॉट इन माइ नाम' नाम से नागरिकों ने विरोध प्रदर्शन किये। प्रधान मंत्री ने भी कथित गोरक्षकों के इस जघन्‍य कुकृत्‍य की निन्‍दा की, पर इससे हालात और माहौल में शायद ही बदलाव आये। 5 दिनों बाद ही 27 जून को झारखण्‍ड में क़रीब सौ लोगों ने दूध उत्पादक उस्मान अंसारी की पिटाई करके उसके घर में आग लगा दी। 29जून को राँची के नज़दीक रामगढ़ में अलीमुद्दीन नाम के एक व्यापारी पर हमला करके भीड़ ने उसकी हत्‍या कर दी।
पिछले आठ वर्षों के भीतर सिर्फ गाय के नाम पर भीड़ की हिंसा की 63 ऐसी घटनाएँ घटीं, जिनमें 28लोगों की जान चली गयी। इनमें से 97प्रतिशत घटनाएँ सिर्फ पिछले तीन वर्षों के भीतर घटी हैं। 'इण्डिया स्‍पेण्‍ड' की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में गाय से जुड़ी हिंसा के मामले में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई। इस साल के पहले छ: महीनों में गाय से जुड़ी 20 हिंसात्मक घटनाएँ घटीं, जो 2016 में हुई ऐसी कुछ घटनाओं के दो तिहाई से ज्‍़यादा हैं। कथित गोरक्षकों की भीड़ द्वारा हिंसा की इन घटनाओं में मुसलमानों के अतिरिक्‍त दलित आबादी भी निशाने पर रही है और कहीं-कहीं ईसाई और आदिवासी भी। ग़ौरतलब है कि विगत लगभग दो दशकों के दौरान भीड़ की हिंसा की अभिव्‍यक्तियाँ केवल गाय को लेकर ही सामने नहीं आयी हैं। 'लव जेहाद', धर्मान्तरण आदि की अफ़वाहों से प्रभावित भीड़ की हिंसा की घटनाओं का सिलसिला लगातार चलता रहा है।
ऐसी छिटफुट छोटी-बड़ी घटनाएँ तो देश में पहले भी घटती रही हैं, लेकिन हाल के वर्षों में ऐसी घटनाओं का लगातार जारी रहना हर संवेदनशील और तार्किक चेतना वाले नागरिक को यह सोचने पर मज़बूर करता है कि निरर्थक हिंसा के प्रतीकात्मक और ''भीड़ के उत्‍सव'' जैसे रूप हमारे दैनन्दिन सामाजिक जीवन में किस हद तक और क्‍यों, इस क़दर जड़ें जमाते जा रहे हैं और आम प्रवृत्ति बनते जा रहे हैं!
भीड़ की हिंसा (‘मॉब वॉयलेंस’) और ‘मॉब लिंचिंग’ एक सामाजिक परिघटना है, जो अलग-अलग देशों के इतिहास में, अलग-अलग वक्‍तों में, कई बार विविध रूपों में सामने आती रही हैं। इसके सामाजिक कारणों की पड़ताल करते हुए हमें अतिसामान्‍यीकरण की प्रवृत्ति से बचना होगा। हिंसक भीड़ का मनोविज्ञान अलग-अलग देश कालों में अलग-अलग कारणों से निर्मित होता रहा है। समाजशास्त्रियों, राजनीति विज्ञानियों और सामाजिक मनोविश्‍लेषकों ने इस विषय पर काफी कुछ लिखा है।
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बेशक भीड़ की हिंसा की बर्बरता को कोई भी सभ्‍य नागरिक उचित नहीं ठहरा सकता, लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि इसके पीछे कुछ वास्तविक, औचित्यपूर्ण और न्‍यायसंगत कारण मौज़ूद रहते हैं। कई बार लम्‍बे समय से जारी शासक वर्गों का दमन, आम जनता की असहनीय जीवन-स्थितियाँ, धनिक वर्गों के असीम भोग-विलास, चरम भ्रष्टाचार आदि के चलते भी, किसी संतृप्‍त बिंदु पर पहुँचकर, समाज में एक विस्फोट की तरह भीड़ की हिंसा सामने आती है और सड़कों पर अराजकता फैल जाती है। प्राय: ऐसा तभी होता है जब गहराते जन-असंतोष को एक सुव्यवस्थित जनान्दोलन की शक्‍ल में ढालकर आगे ले जा पाने में सक्षम कोई नेतृत्‍वकारी राजनीतिक शक्ति परि‍दृश्‍य पर मौजूद नहीं होती है। इन स्थितियों में हम कह सकते हैं कि भीड़ की हिंसा ‘वास्तविक चेतना की स्‍वयंस्‍फूर्त विरूपित अभिव्‍यक्ति’ होती है। इसके विपरीत, कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं जब भीड़ की हिंसा एक ‘मिथ्‍या चेतना’ से जन्‍म लेती है और उसीकी अभिव्‍यक्ति होती है। इस ‘मिथ्‍या चेतना’ के भी कई रूप होते हैं। जिस समाज में धर्म, जाति, गोत्र की ''शुद्धता'' की सहस्राब्दियों पुरानी प्राक् आधुनिक सोच जड़ें जमाये बैठी हो, वहाँ यदि माँ-बाप या खाप पंचायतें जाति-गोत्र-धर्म के बाहर प्रेम या शादी करने पर युवकों-युवतियों को सार्वजनिक तौर पर यदि हिंसक दण्‍ड सुनाते हों तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। यह ‘मिथ्‍या चेतना’ का एक उदाहरण है जो प्रतिगामी, मध्‍ययुगीन, सामाजिक-सांस्‍कृतिक मूल्‍यो’-मान्‍यताओं-संस्‍थाओं के रूप में क्रियाशील होती है। जो समाज ऐतिहासिक तौर पर ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रांति’ की प्रक्रिया से गुज़रकर मध्‍ययुगीनता के अंधकार से एक झटके से बाहर न आ सके, वहाँ मूल्‍यों-संस्‍कारों के रूप में क्रियाशील ऐसी 'मिथ्‍या चेतना' और उससे पैदा होने वाली भीड़ की हिंसा के रूप प्राय: देखने को मिलते हैं। भारतीय समाज एक ऐसा ही समाज है, जो अपनी स्‍वतंत्र स्‍वाभाविक आंतरिक गति से आधुनिक बुर्जुआ समाज बनने की दिशा में आगे बढ़ने के पहले ही उपनिवेश बन गया। दो सौ वर्षों की ग़ुलामी और 70 वर्षों की आज़ादी के दौरान आधुनिकता और वैज्ञानिक तर्कणा भारतीय जीवन में किसी आमूलगामी सामाजिक क्रांति की प्रक्रिया में नहीं, बल्कि क्रमिक और मंथर गति से आई है। इसलिए ये सतही और विकृत हैं तथा आम सामाजिक जीवन में तमाम प्राक्-आधुनिक मूल्‍यों-संस्‍थाओं की मौज़ूदगी भी बनी हुई है। ऐसे समाज में यदि डायन होने के संदेह में भीड़ किसी स्‍त्री को पीट-पीट कर मार डालती है, या कोई खाप पंचायत जाति या गोत्र के बाहर शादी करने पर किसी को मौत की ''सज़ा'' दे देती है, तो यह आश्‍चर्य की बात नहीं है। ग़ौर से देखें, तो ये संस्‍थाएँ केवल इतिहास की ही देन होने के नाते जीवित नहीं हैं। ये जीवित हैं, क्‍योंकि हमारे देश के जन्‍मना रुग्‍ण और विकलांग पूँजीवाद ने बहुतेरे मध्‍ययुगीन मूल्‍यों-संस्‍थाओं को पुन:संस्‍कारित करके अपना लिया है।
जन समुदाय की 'मिथ्‍या चेतना' का दूसरा रूप वह है, जिसे मज़बूत और व्‍यापक बनाने में, और कई बार तो, उत्‍पादित करने में, शासक वर्ग की प्रचार-तंत्र की प्रमुख भूमिका होती है। दुनिया के विभिन्‍न देशों में नस्‍लवाद, रंगभेद, धार्मिक कट्टरता, अंधराष्‍ट्रवाद, जातिवाद आदि के आधार पर जन-समुदाय को बाँटने के लिए शासक वर्ग ‘मिथ्‍या चेतना’ पैदा करता रहा है। इस आधार पर गहराने वाले अलगाव का विस्‍फोट प्राय: भीड़ की हिंसा के रूप में होता रहा है। नस्‍लवाद, धार्मिक कट्टरपंथ और अंधराष्‍ट्रवाद के आधार पर जनता में जुनूनी मानसिकता पैदा करने का काम विशेष तौर पर, और सबसे सुनियोजित ढंग से फासिस्‍ट शक्तियाँ करती रही हैं, इतिहास इसका गवाह है। फासिस्‍ट शक्तियों की एक अभिलाक्षणिक विशिष्‍टता यह रही है कि वे न सिर्फ जुनूनी हिंसक मानसिकता और भीड़ की हिंसा की ज़मीन तैयार करती हैं, बल्कि वे राजकीय हिंसा के साथ ही भीड़ की हिंसा का एक राजनीतिक उपकरण के तौर पर सुनियोजित ढंग से इस्‍तेमाल भी करती हैं। फासिस्‍टों द्वारा विनिर्मित-प्रेरित भीड़ की हिंसा की चर्चा मैं अलग से लेख के अगले भाग में करूँगी। इसके पहले इतिहास में वास्‍तविक चेतना की विरूपित, स्‍वयंस्‍फूर्त अभिव्‍यक्ति और ‘मिथ्‍या चेतना’ की अभिव्‍यक्ति -- इन दोनों ही प्रकृति की भीड़ की हिंसा के कुछ प्रतिनिधि उदाहरणों की चर्चा कर ली जाये, तो बेहतर होगा।
14 जुलाई, 1789 को आम ग़रीबों की एक भीड़ ने फ्रांस में बास्‍तीय के किले पर हमला करके गवर्नर और कई अधिकारियों तथा सैनिकों की हत्‍या कर दी थी और किले की ईंट से ईंट बजा दी थी। इस दौरान भीड़ में शामिल 83 लोग भी मारे गये थे। ऐतिहासिक तौर पर यही घटना आगे चलकर फ्रांसीसी क्रांति का प्रस्‍थान-बिन्‍दु बन गयी। बास्‍तीय दुर्ग पर जिस हिंसक भीड़ ने धावा बोला था, वह लुई सोलहवें के भ्रष्‍ट और निरंकुश प्रशासन से तंग थी और भुखमरी तथा घनघोर अभाव की शिकार थी। बास्‍तीय की घटना जनता की वास्‍तविक चेतना का एक हिंसक विस्‍फोट थी।
1814 में मिलान में दंगा फैला और भीड़ ने मनमाने ढंग से कर लगाने वाले नेपोलियन के निरंकुश वित्‍त मंत्री गिस्‍पे प्रीना की बेरहमी से हत्‍या कर दी। भीड़ का यह आतंक भयानक था, पर इसके पीछे भी जेनुइन कारण थे। अत: यह भी वास्‍तविक चेतना की विरूपित स्‍वत:स्‍फूर्त अभिव्‍यक्ति था।
अठारहवीं शताब्‍दी के अंत से लेकर उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के तीसरे दशक तक अमेरिका में बड़े पैमाने पर मेक्सिकी आप्रवासी मज़दूर भीड़ की हिंसा के शिकार हुए। 1780 में अमेरिका में श्‍वेतों-अश्‍वेतों की हिंसक भीड़ के टकराव में 5 हजार लोग मारे गये। 1903 से 1906 के बीच, रूस में जार अलेक्‍सान्‍द्र द्व‍ितीय के शासन काल के दौरान 2000 से अधिक यहूदी हिंसक भीड़ द्वारा मार डाले गये। 1919 में लीवरपूल में एक अफ्रीकी द्वारा दो गोरों को चाकू मार देने के बाद पूरे ब्रिटेन में नस्‍ली दंगे भड़क उठे थे और राह चलते आम अश्‍वेतों को बड़े पैमाने पर भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ा था। 1949 में दक्षिण अफ्रीका में 142 भारतीयों को और फिर 1985 में 55 भारतीयों को भीड़ ने मौत के घाट उतार दिया था। ये ऐसी अंधी-बर्बर हिंसा की घटनाएँ थीं, जिनमें निराशा में उन्मत्‍त या प्रतिशोध की भावना से पागल आम लोगों की भीड़ ने उन आम लोगों को अपना शिकार बनाया जिन्‍हें वे ‘पराया’ या ‘बाहरी’ समझते थे और अपनी ज़ि‍न्‍दगी की समस्‍याओं के लिए ज़िम्‍मेदार मानने के नाते अपना शत्रु समझते थे। ये ‘मिथ्‍या चेतना’ की प्रातिनिधिक अभिव्‍यक्तियाँ थीं। 1984 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्‍या के बाद दिल्‍ली में और देश के बहुतेरे शहरों में सिखों के विरुद्ध बर्बर हिंसा का जो नंगा नाच हुआ था, वह भी ऐसी ही परिघटना का एक प्रतिनिधि उदाहरण था।
हाइती में तानाशाह दुबालियर की सत्‍ता के पतन से पहले आलम यह था कि अराजक भीड़ सड़कों पर अमीर लोगों को उनकी मँहगी अमेरिकी गाड़ि‍यों से बाहर खींच लेती थी और उनके गले में जलता टायर डालकर उन्‍हें मार डालती थी। यह हिंसा बर्बर थी, लेकिन यह दशकों से जारी धनिक अल्‍पतंत्र के विलासी, भ्रष्‍ट, दमनकारी शासन के विरुद्ध खौलते गुस्‍से का स्‍वयंस्‍फूर्त विस्‍फोट था। दुनिया के कई देशों में और औपनिवेशिक काल में हमारे देश में भी अकाल और भुखमरी के दौर में खाद्यान्‍न दंगों का इतिहास मिलता है, जब भूखी भीड़ ने सड़कों पर हिंसा का ताण्‍डव किया था, पर इस अंधी हिंसा के पीछे के कारणों को सहज ही समझा जा सकता है। इसके पीछे अन्‍याय के विरुद्ध विद्रोह की वास्तविक चेतना काम कर रही थी, जो दिशाहीन और अराजक थी।
लेकिन जुनैद, पहलू खान, अख़लाक और अलीमुद्दीन जैसे आम लोग भीड़ की जिस हिंसा का शिकार हुए, वह एक सर्वथा अलग परिघटना है। ग़ौर से देखें तो उस बेचेहरा हिंसक भीड़ के पीछे हमें एक सुनिश्चित विचारधारा और राजनीति का चेहरा दिखाई देता है, जिसकी सटीक ढंग से शिनाख्‍़त करने के लिए फासिज्‍़म की परिघटना को समझना ज़रूरी है। फासिज्‍़म के दौर में राजकीय हिंसा, संगठित फासिस्‍ट गुण्‍डा-वाहिनियों की हिंसा और भीड़ की हिंसा का एक विचित्र सहमेल स्‍थापित हो जाता है। फासिज्‍़म सुव्‍यवस्थित प्रचार द्वारा उन्‍मादी हिंसक भीड़ की ‘मिथ्‍या चेतना’ का निर्माण करता है। फासिज्‍़म के दौर में भीड़ की ‘मिथ्‍या चेतना’ स्‍वयंस्‍फूर्त नहीं होती, बल्कि उसे व्‍यवस्थित ढंग से गढ़ा जाता है। इसे समझने के लिए फासिज्‍़म की संरचना और सामाजिक आधार को समझना ज़रूरी है।
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चलती ट्रेन के खचाखच भरे डिब्‍बे में
चाकुओं से गोद-गोद कर मार दिया गया
क्‍योंकि वह जुनैद था
झगड़ा भले ही हुआ हो बैठने की जगह के लिए
लेकिन वह मारा गया
क्‍योंकि वह जुनैद था
न उसके पास कोई गाय थी
न ही फ्रिज में मांस का कोई टुकड़ा
फिर भी मारा गया क्‍योंकि वह जुनैद था
सारे तमाशबीन डरे हुए नहीं थे
लेकिन चुप सब थे क्‍योंकि वह जुनैद था
डेढ़ करोड़ लोगों की रोजी छिन गयी थी
पर लोग नौकरी नहीं जुनैद को तलाश रहे थे
जितने नये नोट छापने पर खर्च हुए थे
उतने का भी काला धन नहीं आया था
पर लोग गुम हो गये पैसे नहीं
जुनैद को खोज रहे थे
सबको समझा दिया गया था
बस तुम जुनैद को मारो
नौकरी नहीं मिली जुनैद को मारो
खाना नहीं खाया जुनैद को मारो
वायदा झूठा निकला जुनैद को मारो
माल्‍या भाग गया जुनैद को मारो
अडाणी ने शान्तिग्राम बसाया जुनैद को मारो
जुनैद को मारो
जुनैद को मारो
सारी समस्‍याओं का रामबान समाधान था
जुनैद को मारो
ज्ञान के सारे दरवाजों को बंद करने पर भी
जब मनुष्‍य का विवेक नहीं मरा
तो उन्‍होंने उन्‍माद के दरवाज़े को और चौड़ा किया जुनैद को मारो!!
... ...
-- मदन कश्‍यप
(कविता का एक अंश)
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बहाना कुछ भी करो
और जुनैद को मार डालो।
... ...
ज़रूरी नहीं कि हर बार तुम्‍हीं जुनैद को मारो
तुम सिर्फ एक उन्‍माद पैदा करो, एक पागलपन
हत्‍यारे उनमें से अपनेआप पैदा हो जायेंगे
और फिर वो एक जुनैद तो क्‍या, हर जुनैद को
मार डालेंगे।
भीड़ हजारों की हो या लाखों की क्‍या फर्क पड़ता है
अंधे-बहरों की भीड़ गवाही नहीं देती
... ...
जुनैद को मारना उनका मकसद नहीं
पर क्‍या करें तानाशाही की सड़क
बिना लाशों की नहीं बनती।
-- राजेश जोशी
(कविता का एक अंश)
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यह नयी राजनीतिक शैली है
कि हत्‍या की नहीं जाती
वह माहौल बनाया जाता है
जिसमें हत्‍या
एक स्‍वाभाविक कर्म हो
जो इस माहौल के जनक हैं
वे हत्‍या पर
अफ़सोस करते हैं
-- पंकज चतुर्वेदी
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पहली बार जब ख़बर आयी कि हमारे दोस्‍तों का कत्‍ल किया जा रहा है, हाहाकार के स्‍वर उठे। लेकिन जब एक हज़ार मारे गये और हत्‍याओं का यह सिलसिला रुका नहीं, चारों ओर ख़ामोशी छा गयी। जब दुष्‍टताएँ वर्षा की तरह गिरने लगती हैं, उन्‍हें कोई नहीं रोकता। जब अपराध इकट्ठा होने लगते हैं, वे नज़र आना बंद हो जाते हैं। जब पीड़ाएँ असहनीय हो जाती हैं, सिसकियाँ सुनायी नहीं देतीं। सिसकियाँ भी ग्रीष्‍म की वर्षा की तरह गिरने लगतीं हैं।
-- बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट
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हमारे देश की सड़कों पर भीड़ की हिंसा के जो रूप आज देखने को मिल रहे हैं, उन्‍हें समझने के लिए 1930 के दशक के ज़र्मनी की एक संक्षिप्‍त इतिहास-यात्रा की जानी चाहिए। ज़र्मन पूँजीवाद को तब ऐसे आक्रामक राष्‍ट्रीय नेता और पार्टी की ज़रूरत थी जो सैन्‍य शक्ति के बल पर यूरोपीय साम्राज्‍यवादी देशों से दुनिया के बाज़ार का बड़ा हिस्‍सा छीनकर मन्‍दी के संकट से निज़ात दिला सके और साथ ही, संगठित मज़दूर आन्‍दोलन और कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन की कमर तोड़कर समाजवाद के भूत से भी छुटकारा दिला सके। हिटलर और उसकी नात्‍सी पार्टी ने इसी ज़रूरत को पूरा किया। हिटलर ने आर्य नस्‍ल की “श्रेष्‍ठता” और “शुद्धता” पर आधारित ज़र्मन अन्‍धराष्‍ट्रवाद का नारा बुलन्‍द किया। राष्‍ट्र की एकता के लिए मज़दूर आन्‍दोलन और कम्‍युनिस्‍टों को बाधक बताते हुए उन्‍हें सबसे पहले निशाना बनाया गया। इसमें राज्‍य मशीनरी के साथ ही नात्‍सी पार्टी की गुण्‍डा वाहिनियों की अहम भूमिका थी। आर्य नस्‍ल की श्रेष्‍ठता आधारित ज़र्मन राष्‍ट्रवाद के अन्‍तर्निहित तर्क के हिसाब से नात्सियों का अगला निशाना यहूदियों को बनना ही था जो आर्य नहीं थे और जिनकी आबादी रूस और पोलैण्‍ड से लेकर सभी यूरोपीय देशों में बिखरी थी। फलत: ज़र्मन यहूदियों की देशभक्ति को संदिग्‍ध प्रचारित कर देना भी सुगम था। 1930 के दशक के प्रारम्‍भ से ही सरकार और नात्‍सी पार्टी की प्रोपेगैण्‍डा मशीनरी यहूदियों के ख़िलाफ़ शेष ज़र्मन आबादी के दिलो-दिमाग़ में लगातार ज़हर घोल रही थी और उन‍की छवि ‘पराये’, ‘अन्‍य’ और ‘बाहरी’ के रूप में स्‍थापित कर रही थी। यहूदियों पर और उनके घरों-दुकानों पर यहाँ-वहाँ हमलों की शुरुआत पहले एस.एस.(नात्‍सी पार्टी की गुण्‍डा वाहिनी) के दस्‍तों ने की। फिर जगह-जगह भीड़ भी उनपर हमले करने लगी। ‘क्रिस्‍टल नाइट’ नाम से इतिहास-प्रसिद्ध 9-10 नवम्‍बर 1938 की रात वह निर्णायक रात थी जब यहूदियों के क़त्‍लेआम के मंसूबे को पूरी ताक़त और तैयारी के साथ अमली जामा पहनाया गया। यह काम केवल एस.एस. के दस्‍तों ने ही नहीं किया। प्रचार-सम्‍मोहित हिटलर-समर्थक आम आबादी एक बर्बर भीड़ में तब्‍दील हो चुकी थी। सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। प्रेस को चुप रहना था। पुलिस को किनारे खड़ा रहना था और भीड़ को उसका काम करने देना था। दस साल के भीतर हिटलर ने ज़र्मनी को यहूदियों से खा़ली करने का निर्देश गोयबेल्‍स को दिया था। 9-10 दिसम्‍बर 1938 की रात इसे फैसलाकुन अंजाम तक पहुँचा दिया गया। रक्‍तपात, आगज़नी और तोड़फोड़ की वह रात इतिहास के पन्‍नों पर हमेशा के लिए दर्ज़ हो गयी।
हिटलर नाम का व्‍यक्ति तो इतिहास के क़ब्रिस्‍तान में कभी का दफ़्न हो चुका है, लेकिन उसकी विचारधारा जीवित है और पूँजीवाद के वर्तमान असाध्‍य ढाँचागत संकट के दौर में दुनिया के बहुतेरे देशों में सत्‍ताधारी नस्‍लवाद, अंधराष्‍ट्रवाद और धार्मिक कट्टरपंथ के हिटलरी नुस्‍खों को तरह-तरह से आज़मा रहे हैं। अतीत से सबक़ लेकर पूँजीपति वर्ग फासिज्‍़म को एकदम खुला नहीं छोड़ रहा है, बल्कि जंज़ीर से बँधे हुए खूँखा़र भेडि़ये की तरह इस्‍तेमाल कर रहा है। फासिस्‍ट संस्‍थाओं की प्रोपेगैण्‍डा मशीनरी लगातार विविध रूपों में ऐसी भीड़ के सामूहिक मानस का निर्माण कर रही है जो ‘पराया’ या ‘अन्‍य’ समझी जाने वाली किसी भी धार्मिक, भाषाई, नस्‍ली या आप्रवासी अल्‍पसंख्‍यक आबादी पर झपट पड़ने के लिए तैयार है। यह मानसिकता स्‍वनिर्मित नहीं है, बल्कि ‘मैन्‍युफैक्‍चर्ड’' है। अलग-अलग देशों में इसके रूप अलग-अलग हैं। फासिज्‍़म की अन्‍तर्वस्‍तु को समझे बिना इस बात को समझना मुश्किल है कि गाय की रक्षा या ‘लव जेहाद’, वैलेण्‍टाइन डे आदि के विरोध के नाम पर जो भीड़ सड़कों पर हिंसा का ख़ूनी खेल खेलती है, वह बेचेहरा लगती है, पर दरअसल वह अपने आप में एक राजनीति-विशेष का चेहरा है। यह राजनीति है, फासिज्‍़म की राजनीति।
फासिज्‍़म वित्‍तीय पूँजी के आर्थिक हितों की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक अभिव्‍यक्ति होता है, पर यह केवल निरंकुश राज्‍यसत्‍ता या तानाशाही के रूप में ही नहीं होता है, बल्कि मध्‍यवर्ग का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन होता है। यह परेशानहाल मध्‍यवर्ग के पीले-बीमार चेहरे वाले युवाओं को लोकलुभावन नारे देकर और “गढ़े गये” शत्रु के विरुद्ध उन्‍माद पैदा करके उन्‍हें अपने साथ गोलबन्‍द करता है। उत्‍पादन की प्रक्रिया से बाहर धकेल दिये गये विमानवीकृत (डीह्यूमनाइज्‍़ड) और लम्‍पट सर्वहाराओं की भी यह अपनी गुण्डावाहिनियों में भरती करता है। फासिज्‍़म तृणमूल स्‍तर पर नाना प्रकार के कैडर-आधारित सांगठनिक ढाँचों के ज़रिए काम करता है जो इस प्रतिक्रिया‍वादी सामाजिक आन्‍दोलन के स्‍नायुतंत्र के समान होते हैं।
फासिज्‍़म हमेशा उग्र अन्‍धराष्‍ट्रवादी नारे देता है। वह संस्‍कृति का लबादा ओढ़कर आता है, संस्‍कृति का मुख्‍य घटक धर्म या नस्‍ल को बताता है और सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद का नारा देता है। इस तरह देश-विशेष में बहुसंख्‍यक धर्म या नस्‍ल का “राष्‍ट्रवाद” ही मान्‍य हो जाता है और धार्मिक या नस्‍ली अल्‍पसंख्‍यक स्‍वत: “पराये” या “बाहरी” हो जाते हैं। एक आधुनिक परिघटना के रूप में राष्‍ट्रवाद की वैज्ञानिक अवधारणा को अस्‍वीकारने के लिए सभी फासिस्‍ट अपने राष्‍ट्र को प्राचीन काल से ही ‘महान राष्‍ट्र’ के रूप में मौज़ूद बताते हैं, मिथकों को ऐतिहासिक यथार्थ बताते हैं और इतिहास का मिथकीकरण करते हैं। धार्मिक या नस्‍ली अल्‍पसंख्‍यकों को निशाना बनाने के लिए फासिस्‍ट संस्‍कृति और इतिहास का विकृतिकरण करने के लिए तृणमूल स्‍तर पर मौज़ूद शिक्षा और प्रचार के अपने वैकल्‍पिक तंत्र का तथा धार्मिक प्रतिष्‍ठानों का निरंतर इस्‍तेमाल करते हैं। सत्‍ता में आने के बाद, वे मुख्‍य धारा की मीडिया के बड़े हिस्‍से को, सरकारी प्रचार तंत्र को और शिक्षा तंत्र को भी इस काम में सन्‍नद्ध कर देते हैं। पिछड़े समाजों में मौज़ूद रूढि़यों और मध्‍ययुगीन मूल्‍यों का भी वे जमकर अपने पक्ष में इस्‍तेमाल करते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया का इस्‍तेमाल करने में भी फासिस्‍ट सबसे आगे हैं। आज के फासिस्‍ट हिटलर की तरह यहूदियों के सफ़ाये के बारे में नहीं सोचते। दंगों, राज्‍य-प्रायोजित नरसंहारों और कुशल ढंग से उकसायी गयी भीड़ की हिंसा के ज़रिए आतंक पैदा करके वे धार्मिक अल्‍पसंख्‍यकों को ऐसा दोयम दर्जे का नागरिक बना देना चाहते हैं, जिनके लिए क़ानून और जनवादी अधिकारों का कोई मतलब न रह जाये और अर्थव्‍यवस्‍था में भी उनकी भागीदारी ज्‍़यादातर निकृष्‍टतम श्रेणी के उजरती ग़ुलामों के रूप में ही रह जाये। साथ ही, धार्मिक अलगाव के ज़रिए, वे आम मेहनतक़श जनता की एकजुटता को भी तोड़ने का काम करते हैं।
भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्‍य पर एक खाँटी फासिस्‍ट संगठन के रूप में आर.एस.एस.1925 से ही मौज़ूद रहा है और लगातार सक्रिय रहा है। लेकिन स्‍वातंत्र्योत्‍तर भारत के पूँजीवादी समाज में सापेक्षिक अर्थों में जबतक विकास की आंतरिक त्‍वरा बची हुई थी, इसका अनुषंगी राजनीतिक संगठन संसदीय राजनीति में और समाज में हाशिए पर ही बना रहा। व्‍यवस्‍था का संकट बढ़ने के साथ ही राजनीति और समाज में इसका प्रभाव-विस्‍तार होता गया। अपने असाध्‍य ढाँचागत संकट और गतिरोध से निजात पाने के लिए भारतीय पूँजीवाद ने 1990 के दशक में जब नवउदारवाद की राह पकड़ी, तो इसी दौर में संघ और भाजपा का तेजी से विस्‍तार हुआ। जो नवउदारवाद का दौर रहा है, वही आडवाणी की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद ध्‍वंस, और गुजरात-2002 से लेकर मोदी के सत्‍तारूढ़ होने तक का भी दौर रहा है। 2014 के बाद से लगातार राजकीय हिंसा, हिन्‍दुत्‍ववादी गुण्‍डा वाहिनियों की हिंसा और भीड़ की हिंसा के त्रिभुज की काली छाया पूरे देश पर फैलती जा रही है। धार्मिक अल्‍पसंख्‍यकों के बीच भी जो कट्टरपंथी तत्‍व हैं, उनकी सरगर्मियों और निरुपाय निराशा में की जाने वाली छिटफुट आतंकवादी गतिविधियों से भी हिन्‍दुत्‍ववादी बहुलतावादी फासिस्‍ट धारा को ही और मज़बूती मिलती है।
निचोड़ के तौर पर, कहा जा सकता है कि इस समय सड़कों पर उन्‍मादी भीड़ की अंधी हिंसा का जो “पैशाचिक उत्‍सव” जारी है, वह फासिज्‍़म के वर्चस्‍व के दौर की ही एक परिघटना है। इस भीड़ का कोई चेहरा नहीं है, बल्कि यह भीड़ स्‍वयं फासिज्‍़म की विचारधारा और राजनीति का एक चेहरा है। जैसा कि हमने पहले ही कहा है, फासिज्‍़म तृणमूल स्‍तर से संगठित, मध्‍यवर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन होता है। केवल बौद्धिक दायरे तक सीमित रहकर और प्रतीकात्‍मक कार्रवाइयों या शांति और सर्वधर्मसमभाव की अपीलों से हम फासिज्‍़म प्रायोजित भीड़ की हिंसा का मुक़ाबला नहीं कर सकते। केवल, तृणमूल स्‍तर से एक प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन संगठित करके ही इसका प्रतिरोध किया जा सकता है।
सवाल सिर्फ़ संसदीय चुनावों में किसी पार्टी विशेष को हराने का नहीं है, बल्कि एक आन्‍दोलन-विशेष के सामाजिक आधार को नष्‍ट करने का है।

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