Sunday, December 10, 2017

साइबर युग की फ़ासीवादी बर्बरता


उत्‍पादक शक्तियों के विकास के साथ ही साथ बर्बरता के स्‍वरूप में भी तब्‍दीली आती है। 1930 के दशक में यूरोप में फ़ासीवादियों ने अल्‍पसंख्‍यकों, कम्‍युनिस्‍टों, राजनीतिक व‍िरोधियों और मानवीय मूल्‍यों की बात करने वाले हर नागरिक के दिल में ख़ौफ़ व दहशत तथा उनके ख़‍िलाफ़ पूरे समाज में नफ़रत फैलाने के लिए कंसनट्रेशन कैम्‍प और गैस चैम्‍बर का सहारा लिया था। लेकिन आज 21वीं सदी के साइबर युग में फ़ासीवादियों को कंसनट्रेशन कैम्‍प और गैस चैम्‍बर के तामझाम की ज़रूरत नहीं है। उन्‍हें बड़े पैमाने पर दंगों और नरसंहार की भी ज़रूरत नहीं है। वे अब बस बर्बर ढंग से कुछ 'टार्गेटेड' हत्‍याएँ करके उनका वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया, व्‍हाट्सएप और ब्‍लॉगों-वेबसाइटों के ज़रिये वायरल करके पूरे समाज में ख़ौफ़, दहशत और नफ़रत का माहौल बना सकते हैं। यही नहीं जिस तरह से कंसनट्रेशन कैम्‍प और गैस चैम्‍बर मुनाफ़ा कमाने के भी साधन थे उसी तरीके से ख़ौफ़, दहशत और नफ़रत फैलाने वाले वीडियो वायरल करने का कारोबार भी खूब फल-फूल रहा है जिसमें तमाम वेबसाइटें और मीडिया चैनल ज़बर्दस्‍त मुनाफ़ा कमा रहे हैं।
राजसमंद की वीभत्‍स घटना के बाद कुछ लोग अचम्भित हैं कि एक इंसान दूसरे इंसान के साथ इतनी वहशियाना हरकत कैसे कर सकता है। कुछ लोग इसका कारण हत्‍यारे के पागलपन भरे जुनून में ढूँढ रहे हैं तो कुछ इसके लिए हिन्‍दुत्‍व की विचारधारा को जिम्‍मेदार ठहरा रहे हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि तमाम फ़ासीवादी विचारधाराओं की तरह हिन्‍दुत्‍व की विचारधारा भी ऐसा पागलपन भरा जुनून पैदा करती है जिसकी परिणति इस क़‍िस्‍म के बर्बर कृत्‍यों में होती है। लेकिन हमें अगला सवाल भी पूछने का साहस होना चाहिए कि वो कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो हिन्‍दुत्‍व की विचारधारा को खाद-पानी देने का काम कर रही हैं। जब हम इस सवाल का जवाब ढूँढने की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो बरबस ही बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट की वो बात याद आती है - बर्बरता बर्बरता से नहीं पैदा होती, बल्कि उन व्‍यापारिक सौदों से पैदा होती है जिन्‍हें बिना बर्बरता के अंजाम देना सम्‍भव नहीं हो पाता। आज साइबर युग की बर्बरता से अचम्भित होने की बजाय हमें इस बर्बरता के पीछे छ‍िपे उन सम्‍पत्ति सम्‍बन्‍धों को समझने की ज़रूरत है जिनको क़ायम रखने के लिए ऐसी बर्बरता आवश्‍यक है। जो लोग आज की बर्बरता से वाकई व्‍यथित हैं उनको यह ज़रूर सोचना चाहिए कि क्‍या लोभ-लालच, मुनाफ़े और निजी सम्‍पत्ति पर टिकी पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के रहते इस बर्बरता से छुटकारा पाया जा सकता है? निश्‍चय ही ऐसी तमाम बर्बरताओं को बढ़ावा देने के लिए मौजूदा सरकार और शासन कर रही पार्टी को जिम्‍मेदार ठहराया जाना चाहिए। लेकिन हमें इस पर भी सोचना चाहिए कि क्‍या मौजूदा सरकार को बदल देने मात्र से समाज के पोर-पोर में घुल चुकी नफ़रत ख़त्‍म हो जाएगी? क्‍या हमें इस बर्बरता की जड़ यानी समूचे पूँजीवादी निजाम को ही नेस्‍तनाबूद करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
-- Anand Singh की लेखनी से

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