Friday, February 16, 2018

#हमारेसमयमें


हमारे समय में
(एक)

मरी हुई आत्माएँ
ज़िंदगी की
नई-नई व्याख्याएँ कर रही हैं ।

(दो)

नाउम्मीद लोग
उम्मीदों पर
विमर्श कर रहे हैं !

(तीन)

कवियों की प्रगतिशीलता
इनदिनों
ज़िंदगी का मर्सिया गा रही है ।

(चार)

"मार्क्सवादी" आलोचक
ओशो और कृष्णमूर्ति से सीखकर
अपनी दृष्टि पैनी कर रहे हैं !

(पांंच)


अनुभववाद का फलित ज्योतिष
मार्क्सवाद का
भविष्यफल बाँच रहा है ।

(छ:)

'सार्वजनिक सुविधा' का बोर्ड लगी जगहें
भयंकर गंदी और असुविधाजनक होती हैं
पर मजबूरी में उनका इस्तेमाल करना ही पड़ता है ।
***
सोशल मीडिया पर साहित्यिक वाद-विवाद का स्पेस
बस अड्डे की वह जगह है
जहां 'सार्वजनिक सुविधा' का बोर्ड लगा है ।

(सात)

कुछ कुपितविवेकी बूढ़े और युवा
मुक्तिबोध की कविताओं की फैंटेसी और "जटिलता" से
क्रुद्ध होकर कह रहे हैं कि
मुक्तिबोध ने हिन्दी काव्य-परंपरा का बहुत नुकसान किया ।
वे मुक्तिबोध की तुंग प्रतिमा गिराकर तोड़ देना चाहते हैं ।
उनका कहना है कि प्रगतिशील कविता में
किसान-मजदूर और प्रकृति-- इन तीन चीजों के ब्योरे होने चाहिए
और सबसे बड़ी बात यह कि वह एकदम सरल होनी चाहिए
एकदम आम लोगों के समझ में आने लायक ,
एकदम उनके जैसी भाषा में ।
ऐसी कविता लिख पाना तो बेहद कठिन है , काफी अभ्यास करना होगा ,
सो मैंने अभी से शुरू कर दिया है ।
मेरे अभ्यास-पुस्तिका की पहली कोशिश
प्रस्तुत है :
' लखन उधर चल
नहर पर टहल
बतख मत पकड़
बरतन सर पर रख
झटपट घर चल
खटपट मत कर '

(आठ)

वास्तविक बर्बरता का
प्रतीकात्मक विरोध ?
क्या बर्बरता के ज़मीर को
जगाया जा सकता है ?

(15जुलाई,2017)



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